जब सड़क बन रही थी
कच्चे काले कोलतार की,
और तुमने कहा था -
देख बिल्कुल काली हैं न
तेरी आँखों की तरह।
कोलतार से उठ रहे धुएँ
के बीच
एक दार्शनिक की तरह
कहा था मैंने -
कुछ सपने हैं सड़क के, अनदेखे-से
पहुँचना है इसे अपनी मन्ज़िल
उस सुदूर देहात तक,
विकास की किरण के साथ।
और तु्मने दी थी हा्मी -
हाँ, इसके भी कुछ सपने थे
तेरी आँखों की तरह।
अरसे बाद उधर से
गुजरा मैं, तो देखनी चाही
मैंने , वह सड़क और उसके
अनदेखे सपने।
देखा मैंने कि वह सड़क
अधूरी थी और टुटे हुए थे
उसके वह सपने, विकास के।
तुम साथ नहीं थे , मगर
मेरे आँसुओं ने स्वीकारा -
हाँ, टूट गए हैं वह सपने सड़क के
मेरी आँखों की तरह।
- अरविन्द कुमार
(सर्जना २४वें अंक से)
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