मेरा मैं

on शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009


मेरा मैं
है कहीं भीतर
खूब भीतर’
और परतें चढी जा रही हैं
चढ़ती जा रही हैं
परतें...
परतें...
परतें...
दो बूँद खामोशी
सहेज रखी है मैंने
किसी बेशकीमती विरासत की तरह
जब आँखों को मूँदकर
छूता हूँ अपनी खामोशियों को
तो लगता है
कुछ मिल गया है खोया-सा
और परतों के भीतर
खूब भीतर
कुछ कहता है कुछ सुनता है
कहीं ज़िन्दा है
कहीं ज़िन्दा है
मेरा "मैं"।

-- राहुल कुमार
(सर्जना २८वें अंक से)

बोलते अक्षर

on शुक्रवार, 10 जुलाई 2009


अक्षर,
जो क्षय नहीं होते
मानव की भांति नहीं रोते
अंकित हो जाते हैं हृदय पर
पुकारते हैं अपनी आवाज़ से
हाँ, अक्षर भी बोलते हैं
तुमने सुनी नहीं अब तक
शायद तुम पढ़ते-लिखते
रहे हो अक्षरों को,
जानते नहीं सच
बोलने वाले अक्षर
नए नहीं हैं
सदियों से वे सुना रहे हैं
दास्तान अपनी

शब्दों से भी बड़े हैं,
ये अक्षर जो जोड़ते हैं
कभी-कभी ज़िन्दगी भी
साक्षर होने का मतलब ये
नहीं कि तुम सुन पाओगे
अक्षरों की ध्वनि से परिचित हो
गाथाओं को बुन पाओगे,
क्योंकि तुम तो क्षणिक हो
अविनाशी एवं निरन्तर जो हैं,
वे क्षणभंगुर नहीं होते,
अक्षर,
जो क्षय नहीं होते।

-- दीपक कुमार


(सर्जना २५वें अंक से)

बदलाव

on शुक्रवार, 19 जून 2009


इकबाल भाई का माथा ठनका। उनकी आँखें सड़क की ओर टिक गई। कार बन्द होने की तेज आवाज़ उन्हें भयंकर सर्वनाश के प्रति सचेत कर रही थी। कार और पीछे पुलिस की जीप। वही हुआ जिसका उन्हें डर था। कार का दरवाजा खुला और तेजी से तीन-चार लोग उनकी ओर बढ़े। ये वही लोग थे जो कुछ दिनों से उन पर यह दबाव बना रहे थे कि वह अपने बेकरी से उन दस बच्चों की छुट्टी कर दें जिनकी उम्र अभी काम करने की नहीं, पढ़ने-लिखने की है। इकबाल भाई ने उन्हें लाख समझाया कि यदि ये बच्चे काम न करें तो पढ़ने की बात तो दूर, वे पेट भर भोजन के लिए भी तरसेंगे। पर व्यर्थ, कौन समझेगा और क्यों समझे, क्योंकि इन्होनें तो समाजसेवा और मानवाधिकार का ठेका जो ले रखा था। और इनके रहते बाल श्रम, नहीं , कभी नहीं।

अब तक बेकरी के चारों ओर भीड़ लग चुकी थी। इस बीच कुछ जागरुक पत्रकार बंधु भी पहुँच चुके थे। पुलिस ने बेकरी में ताला मार दिया और बच्चों को बेकरी से मुक्त करवा दिया। हर जुबान पर इस घटना की प्रशंसा, जैसे समाज सचमुच चैतन्य हो गया हो। कल के अखबार की एक अच्छी ख़ब़र.......।

सारे शहर की तरह वहाँ के मन्दिर में भी इस बदलाव की चर्चा हो रही थी। पर कुछ तो न बदला था, हाँ बेकरी से काला धुआँ निकलना अब बन्द हो गया था और बाहर भिखारियों की कतार में दस बच्चे अधिक थे।

-- राजन प्रकाश 

(सर्जना २४वें अंक से)

तेरी आँखों की तरह

on सोमवार, 15 जून 2009


बात उन दिनों की है

जब सड़क बन रही थी

कच्चे काले कोलतार की,

और तुमने कहा था -

देख बिल्कुल काली हैं न

तेरी आँखों की तरह।

कोलतार से उठ रहे धुएँ

के बीच

एक दार्शनिक की तरह 

कहा था मैंने -

कुछ सपने हैं सड़क के, अनदेखे-से

पहुँचना है इसे अपनी मन्ज़िल 

उस सुदूर देहात तक,

विकास की किरण के साथ।

और तु्मने दी थी हा्मी -

हाँ, इसके भी कुछ सपने थे

तेरी आँखों की तरह।

अरसे बाद उधर से 

गुजरा मैं, तो देखनी चाही 

मैंने , वह सड़क और उसके 

अनदेखे सपने।

देखा मैंने कि वह सड़क 

अधूरी थी और टुटे हुए थे

उसके वह सपने, विकास के।

तुम साथ नहीं थे , मगर

मेरे आँसुओं ने स्वीकारा -

हाँ, टूट गए हैं वह सपने सड़क के

मेरी आँखों की तरह।

 - अरविन्द कुमार 

(सर्जना २४वें अंक से)

यह आँसू

on शुक्रवार, 12 जून 2009


"वर्त्तमान है क्योंकि
इतिहास के पिछले पन्ने पर,
आसूँ की एक बूंद थी।
कल भविष्य होगा, क्योंकि
वर्त्तमान इतिहास दोहराएगा।"

एक क्रन्दन और मानव जीवन की शुरुआत। रोने की वह प्रथम आवाज़, जीवंतता का प्रतीक, सम्पूर्णता का द्योतक, हर चेहरे की हँसी थी। मिनट, घन्टे, दिन, महीने और साल से गुजरते हुए यही क्रन्दन अपने अपरिमित रूप-परिवर्तनों से अपने उम्र की गिनती करने लगा।

बचपन के आँसू बहुत सरल थे, वाणीमिश्रित, आवेगयुक्त परन्तु क्षणिक। प्रिय वस्तु की चाह, परन्तु उसकी दुर्लभता आवाज़ में ज़िद प्रतिबिम्बित करता और शनै:-शनै: अविरल अश्रुधाराओं से युक्त वाणी अपने विपक्षी को कमजोर कर अपनी चाहत पूरी कर लेती थी। अपने इष्ट खिलौने का टूट जाना भी आँखों में जलधाराएँ संचित कर जाता। शैश्विक क्रन्दन अमूल्य है, जिसके बिना मानव-जीवन गतिशीलता को कदापि प्राप्त नहीं कर सकता था।

बचपन की दहलीज़ पार करते ही मुख की वाणी नहीं अपितु आँखों के आँसू ही पीड़ा वर्णित करने के लिए पर्याप्त होते हैं। शैशवकालीन आँसुओं के बाद आँसू की जो पहली बूंद गिरी होगी, उसका आधार कदापि तुच्छ नहीं रहा होगा। वह काल जब मानवीय महत्वाकांक्षा (मनुष्य की वह वृत्ति जिसने मानव को आर्थिक दृष्टि से श्रेणियों में विभाजित कर दिया) अपनी पराकाष्ठा पर होती है। जिससे उद्वेलित हो मनुष्य राह की तमाम कँटीली झाड़ियों को निर्मूल करता हुआ अपने सफ़र में गतिमान रहना चाहता है, परन्तु भाग्य और समय की चोट से जड़वत्‌ हो जाने को बाध्य हो जाता है, तब चोटिल हृदय के चीत्कार में आँसू का नवीन रूप कुछ ऐसे सामने आता है -

"हर वो राह, जो जाती थी मन्ज़िल को,
हो बेख़बर, हम भी उधर ही चल पड़े।
कदम न रूके, न थके, पलकें पलभर को भी न गिरीं।
घटती दूरियों का निशां, फिर भी जब हमें न मिला,
ऐसा लगा मानों, सपने सारे आँसू बन छलक पड़े।"

एक ही समय, एक ही वस्तु दो रूपों में विद्यमान हो कदाचित संभव नहीं, परन्तु मानव-मन की यह दशा आँसू को दो रूपों में देखती है। एक ओर तो दर्द में डूबे दिल की व्यथा कहता हुआ और दूसरी तरफ़ जब आँसुओं के प्रवेग को हथेलियाँ ख़ुद में समाहित करना चाहती हैं, अपनी मौत से पूर्व आँसू सन्देश देता है - " सपने का टूट जाना जन्म का अंत नहीं, एक नया सोच , एक नई शुरुआत, एक नई दिशा और तुम्हारी मन्ज़िल तुम्हारा इन्तज़ार कर रही है।" तत्क्षण नवचेतना, अद्भुत शक्ति, गज़ब का आत्मविश्वास मन महसूस करने लगता है। पिछली हार की सारी शिकन आँसू की बूंदों से ठीक उसी तरह गायब हो जाती है, जैसे ठंडक की प्यासी धरती ओस की प्रथम बूंद से ही शीतलता क अनुभव करने लगती है।

एक वृद्ध अपने चेहरे को हथेलियों से समेटे, दूर जाते कारवाँ को पथराई आँखों से देखता रहता है। यह सोचते हुए कि वह कारवाँ कभी अपना था, हम भी साथ चल रहे थे। तभी आँसुओं का प्रबल वेग उसकी पीड़ा को दिशा दे देता है, यह कहकर कि कालचक्र की परिक्रमा सबको यह दिन दिखलाएगी।

जिसे यह ज्ञात हो कि उसका अवतरण ही उसकी मृत्यु का संकेत है, क्या वह अपने मूल को दृष्टिगोचर होने देगा?

"मृत्यु-मृत्यु, क्यों हर मानव चिल्लाता है?
जीवन की रसता पीकर भी, क्यों मौत से डर जाता है?
चित्त-शून्य से तेरे, ये अश्क जो बाहर आते हैं,
हृदय शांत, मन पावन कर, ख़ुद चिरकाल को सो जाते हैं।"

-- कुमारी ईशोत्तमा

(सर्जना के २३वें अंक से)

तब क्यों नहीं कहा था

on गुरुवार, 11 जून 2009


तब क्यों नहीं कहा था -
जब दिन ढलान पर था,
मुख म्लान-सा था
प्रेम-क्षुधा से विह्वल मैं;
भटक रहा था
ठोकर खाकर गिरता,
गिरकर उठता ,
फ़िर यूं हुआ कि,
अशक्त पडा था,राह में
जो जाती थी दहलीज से होकर तुम्हारी
तब तुमने ही तो उठाया था मुझे

तब क्यों नहीं कहा था-
जब सूरज नहला रहा था ,
रश्मियों की स्वाति
दिवसपात्र में भरकर
तुम्हारी सुचिक्कन काया को,
और मैं, स्पर्शातुर तुम्हारे
स्नेह्सिक्त हाथों का ,
तब उन्हीं हाथों से
लिख दिया था एक स्वप्न;
अंकित हो गया था जो ह्रत-पत्र पर

आज कह्ती हो तुम -
पाने का यत्न ही कब किया था,
जो खोने का गम मुझे हो
अच्छा होता कि तुम मुझे खोती-
तभी तो जान पाता एहसास तुम्हारा
और तुम्हारे पाने की हद को
आज कि जब तुम ,
‘तुम’ नहीं हो
तब मैं ही क्यों मैं रहूं

कच्ची स्याही से लिखा स्वप्न धुल गया है
लेकिन रंग छोड़ गया है
याद दिलाने को,
कि एक स्वप्न लिखा था
कभी मेरे वास्ते भी किसी ने

-- विवेक रंजन झा
(सर्जना २७वें अंक से)

यथार्थ

on बुधवार, 10 जून 2009


जीवन परिवर्तनशील है क्योंकि उसमें प्रवाह है समय का, विचारों का। समय का प्रवाह तो निश्चित व लयबद्ध गति से होता है, पर विचार मनुष्य की आकांक्षाओं और जरूरतों से परिभाषित होते रहते हैं। कितनों की ज़िन्दगी उन बून्दों जैसी हैं, जो धारा के साथ बहते हुए अपनी मन्ज़िल पा लेते हैं - उद्देश्यहीन व लक्ष्य-विहिन नहीं रह जाते। जीवन में प्रवाह तो रहता है पर ’दिशाहीन’। एक तरू से हरे-भरे वृक्ष बनने तक और फिर अस्तित्वहीन हो जाने तक परिस्थिति व आवश्यकतानुसार मनुष्य के विचार बदलते रहते हैं और अन्तत: पूरा जीवन बिना लक्ष्य के गतिमान दिखता है और इस गति के लिए किया गया हर कार्य स्वार्थनिहित।

............और कुछ ऐसी थी भैया की मोहित से अपेक्षाएँ। और होती भी क्यों न! बेटा था ही इतना कुशाग्र और आज्ञाकारी - जैसे एक सहनशील व त्यागी बाप की तपस्या का फल हो। मन्नतों बाद एक बेटी के आठ साल बाद हुआ था वह। भैया-भाभी ठहरे भोले के पुजारी, सो उसे भगवान शंकर का प्रसाद ही मानते थे। खासकर भाभी तो बस...............उनके असीमित मोह के चलते ही उसका नाम पड़ा था - मोहित। जहाँ भाभी का प्यार अंधा था, वहीं भैया का प्यार अनुशासित। बालपन से ही सब उसकी तीव्र बुद्धि और स्मृति से दंग रह जाते थे। प्रथम वर्ग से लेकर स्नातक तक वह हमेशा पढ़ाई-लिखाई में अव्वल रहा। परिणाम जगजाहिर था - सुयोग्य बेटा छात्रवृत्ति पाकर उच्च-शिक्षा हेतु अमेरिका चला गया। आज अमेरिका गए उसे पाँच साल हो गए हैं। तीन सालों से वहीं पर नौकरी कर रहा है। ऐसा नहीं था कि हम सबकी इच्छा नहीं थी कि मोहित भारत में ही नौकरी करे। भईया ने तो देशभक्ति का पाठ भी पढ़ाया था, पर समय के झंझावात में कश्ती की अपनी दिशा कहाँ होती है? वह तो उधर ही बह निकलती है जहाँ उसकी आवश्यकताएँ पूरी होती दिखती हैं। अभी घर की आवश्यकता पैसा थी तो मोहित ने अमेरिका में ही रहना उचित समझा। शायद पैसों की चमक मजबूत होती है ’रिश्तों के दर्द’ से, इसलिए भैया ने भी हामी भर दी थी। जाने के कुछ दिन बाद तक तो पत्रों का सिलसिला चलता रहा, पर जब से घर में फोन लग गया, अकसर हर सप्ताह बातें हो जाया करती हैं।

कल रात ही उसका फोन आया था। कह रहा था - "फ़ुर्सत बहुत कम मिलती है काम से, पर किसी तरह इस बार होली मे जरूर आऊँगा"। भईया को तो जैसे बिफ़रने का मानो मौका ही मिल गया। बेटे से तो कुछ न बोले, पर मुझे कहने लगे - " आने दो अबकी बार, शादी ही कर दूँगा उसकी। एक बार शादी हो जाए तो देखता हूँ कैसे वापस जाता है यहाँ से? नहीं चाहिए इस परिवार को पैसे की चमक। तुम भी समझाया करो उसको, अनुराग। उसकी माँ यहाँ हमेशा बीमार रहती है, क्या उसका मन नहीं करता कि बेटा नजरों के सामने रहे?" और भी न जाने क्या-क्या कहते रहे भईया...........। कितनी अपेक्षाएँ हैं भईया की मोहित से, आज मैं यही सोचता रहा। भईया-भाभी का बुढ़ापा अब अपनी लाठी को अपने पास ही रखना चाहता है। मुझे लगा कि मोहित को अब यहाँ आना ही पड़ेगा क्योंकि उसकी जरूरत यहाँ बढ़ती जा रही है।

मैं अनायास ही उसके बचपन की स्मृतियों में खो गया। बात उस समय की है, जब मोहित दूसरी कक्षा में पढ़ता था। एक दिन वह मेरे पास आया - आँखों मे आशा, चेहरे पे मुस्कान व शरारत एवं तनी भौंहों के साथ।

"चाचाजी, मुझे पतंग ला दीजिए न।"

"क्यों?" मामला गंभीर समझ मैंने जिज्ञासा से पूछा।

"मैं उसे तारों के पास उड़ा ले जाऊँगा और तारे फँसाकर वापस खींच लूँगा। माँ ने बताया है कि उसे तारे बहुत अच्छे लगते हैं।"

मैंने छेड़ते हुए पूछा था -"मुझे भी एक तारा ला दोगे बेटा?"

और जब उसे यकीन हो गया कि मैं पतंग जरूर ला दूँगा, तो उसने तुरन्त जवाब दिया -" आप शादी कर लीजिए, आपका बेटा आपके लिए तारा ला देगा। मैं तो अपनी माँ का बेटा हूँ।" अरमान और महत्वाकांक्षा की उड़ान उसके चेहरे से साफ़ झलक रही थी।

जब उसे अमेरिका में नौकरी मिली थी तो कितना उत्साहित था वह। उसकी महत्वाकांक्षा की मन्ज़िल को सीढ़ियाँ मिल गई थीं शायद। मुझसे कहा था - "देखना चाचा, मैं माँ का इलाज़ वहीं करवाऊँगा और ठीक हो जाने के बाद अमेरिका की सैर करवाऊँगा।" सचमुच उसे माँ की बड़ी चिन्ता रहती थी। कितनी ही देर मीठी यादों में खोया रहा।

ऐसे ही अपनी-अपनी परेशनियों के बीच उम्र सफ़र करती जा रही थी। होली का समय नजदीक आता जा रहा था और उत्सुकताएँ बढ़ती जा रही थीं।
कल शनिवार की सुबह भाभी की तबियत कुछ ज़्यादा ही बिगड़ गई थी। भईया और मैं जल्दी से उन्हें हॉस्पिटल ले गए थे। हमें कुछ ज़्यादा ही घबराहट हो रही थी। पता तो तीन साल पहले ही चल गया था, पर अर्थाभाव के चलते इलाज़ संभव न था। बस सब कुछ ईश्वर के भरोसे ही चल रहा था। आख़िर वही हुआ जिसका हम सबको डर था। डॉक्टर ने स्पष्ट कह दिया - "मुश्किल से कुछ ही दिन चलेगा यह सब।" भईया तो होनी की आशंका मात्र से ही टूट गए थे।

आज जब मोहित का फोन आया तो भईया ठीक से बात भी न कर सके। मैंने तो यह सोच लिया था कि उसे अब आना ही होगा। मैंने विस्तारपूर्वक परिस्थितियों से अवगत करा दिया। पर मजबूरियाँ भी तो साथ-साथ चल रहीं थीं।

"मुझे बहुत अफ़सोस हो रहा है चाचाजी, मैं पहले क्यों नहीं आया? अभी छुट्टी मिलना नामुमकिन-सा है। और अनिश्चितकाल के लिए छुट्टी लेने में नौकरी खोने का खतरा है। यहाँ जिम्मेवारियाँ बहुत बढ़ गई हैं।" उसने दर्द और दुविधा के साथ कहा - "आप समझ रहें हैं न चाचाजी, मैं बहुत मुश्किल में फंस गया हूँ,........तीन साल से तो माँ बीमार ही हैं और पता नहीं वह कब तक...........ओह! ऐसा करते हैं, मैं रोज़ आपको फोन करूँगा। और एकदम वक्त पर पहुँच जाऊँगा। ठीक है न चाचाजी।"

मैं चुपचाप उसकी बातें सुनता रहा। किंकर्तव्यविमूढ़-सा मैं हालात का मन्थन करता रहा....भाभी का कष्ट हम लोगों से देखा तक नहीं जा रहा था। आठ सुईयाँ लेनी पड़ती थी उन्हें दर्द-निवारण के लिए हर दिन। सुईयों के नशे से हमेशा बेसुध-बेहोश रहा करती थीं। वह जब भी होश में आती तो पूछती - मोहित आ गया क्या? ’मोहित की रट ही उन्हें शायद रोक रही थी। पर ये सिलसिला भी आखिर कब तक चलता। कल रात वह सारे बन्धनों से मुक्त हो गई पर छोड़ गई एक कसक जिस पर मोहित के हस्ताक्षर थे। पर माँ के बड़े प्यार ने ’पैगाम’ पहुँचा दियाथा पुत्र तक। देर रात में ही उसने फोन किया और आज शाम की फ़्लाईट पकड़ कर एकदम सही वक्त पर आ पहुँचा। यूँ तो खुद भी परेशान था, पर आते ही उसने अपनी दीदी और पिता को सँभाल लिया। फिर शुरु हुई एक मशिनी प्रक्रिया, अन्तिम संस्कार की। उसने मेरे साथ मिलकर सब कुछ सँभाल लिया था। मैं परम्पराओं को जड़-विमूढ़ सा निभाता चला जा रहा था, मानो सारे सोच और समझ खत्म हो गये हों। एक ओर सब मोहित के कुशलता की तारीफ़ कर रहे थे, दूसरी तरफ़ जीवन की कुछ यथार्थता ज्ञान के परे हो मुझे अवसन्न कर रही थी। गलती तो किसी ने न की थी, पर भाभी का स्वार्थ(?) पूरा न हो सका जिसकी अभिलाषा थी उन्हें अपने पुत्र से। कभी लगता - दूर से शरारती मोहित उसी चमक के साथ कह रहा हो..........मुझे पतंग ला दीजिए.................देखना चाचा , मैं माँ का........। शायद यथार्थ का मनोविज्ञान मेरे कमजोर अंतस पर चिह्न छोड़ गया था। 

-- कुमुद कुमार

(सर्जना २५वें अंक से)

पीडा़ की देन

on सोमवार, 8 जून 2009

कैसे करूँ प्रतिकार तुम्हारा
हे हृदयकोष में संचित पीड़ा?

आँखों में अविचल धैर्य लिए
वाणी में मृदु प्यार धरे
जिसने जीना मुझको सिखलाया
वह मेरी प्रिया तो तुम ही हो।
फिर कैसे छोडूँ साहचर्य तुम्हारा?
कैसे करूँ प्रतिकार तुम्हारा
हे हृदयकोष में संचित पीड़ा?


जब कभी भटका हूँ मैं,
वैभव-पथ पर ललचा हूँ मैं,
तप्त शीश पर कोमल कर 
को फेर तुम्हीं ने बतलाया
वैभव नही पाथेय मेरा।
इस जीवन के कष्ट-शूल को
धारण करने वाली तुम ही हो।
फिर करूँ न कैसे वरण तुम्हारा?
कैसे करूँ प्रतिकार तुम्हारा
हे हृदयकोष में संचित पीड़ा?

तन के रिसते घावों को
अमृत से तुमने नहलाया
मन में बहती विष की सरिता
को सहज सोख तुमने डाला
व्यर्थ शब्दों का भाजन छोड़
मौन से जिसने मुझे मिलाया
वह मेरी प्रणायिनी तुम ही हो।
फिर कैसे छोड़ूँ साहचर्य तुम्हारा?
कैसे करूँ प्रतिकार तुम्हारा
हे हृदयकोष में संचित पीड़ा?

घृणा-रोष के दलदल से
मुझे ऊबारा, प्यार दिया
मन के छाये अँधेरे को
जल स्वयं जिसने है दूर किया
वह दीपशिखा तुम ही तो हो।
तब करूँ न कैसे नमन तुम्हारा?
कैसे करूँ प्रतिकार तुम्हारा
हे हृदयकोष में संचित पीड़ा?




कविता में कवि का कथ्य - पीडा़ जीवन को नयी अनुभूति देती है, जीवन को संवारने का भी काम करती है। पीडा़ ही प्रथम संगिनी, अन्तिम सहचरी भी है क्योंकि जीवन के सत्य रूप का ज्ञान यही कराती है, यह ही वह अनवरत रोशनी है जो अनन्त पथ-दर्शन कराती है।

आरूणी मूकेश (कुमार सौरभ)
(सर्जना के २४वें अंक से) 

छाया

on रविवार, 7 जून 2009

एक छाया तेजी से मेरा पीछा कर रही है, और मैं उतनी ही तेजी से भाग रहा हूँ। अचानक मैं गिर पड़ता हूँ। छाया तेजी से पीछा करती, मेरे पास पहुँच गई है। और फिर .......मैं जाग जाता हूँ, मेरे रोएँ खडे़ हैं। मुझे जोर की प्यास लगी है। मैं बहुत डरा-सा लगता हूँ।

मैं मौत से नहीं डरता या फिर डरता हूँ। पर क्या है जो मुझे बाईस सालों के बाद भी उस छाया से डर लगता है। मैं मजबूत और निडर बनना चाहता हूँ। अगले दिन मैं फिर अपने कमरे में अलग सोता हूँ, और फिर उसी घटना की पुनरावृत्ति। मैं रह नहीं पाता। मैं काँप उठता हूँ। मैं माँ के पास जाता हूँ और वहीं खाट पर सो जाता हूँ।

अगली सुबह माँ की डाँट। कोई अबोध बालक होता तो माँ से लिपट कर कहता - " माँ, मुझे अँधेले में भूत से डल लगता है।" पर जब आज दिमाग की खिड़कियाँ खुलती जा रही है, जब स्वयं कहानियों के पात्र गढ़ने लगा हूँ तो अपना ही पात्र क्यों इतना कमजोर लगता है। क्यों मैं अपने शयनस्थल पर टिक नहीं पाता? आखिर किस छाया से क्या डर?

इस बार दृढ़ निश्चय कर उससे लड़ता हूँ, जो नहीं है। लड़ता हूँ वहाँ रहने को, पर टिक नहीं पाता। मुझे मौत से डर नहीं लगता - मैं चिल्लाता हूँ।

मैं फिर अगले दिन शयनकक्ष में अकेला सोता हूँ। कई ओर से असंख्य छायाएँ मेरी ओर आ रही हैं। मैं यथाशक्ति खाट पर पड़ा रहता हूँ। मैं आस्तिक हूँ - पर आस्तिकता का छाया से क्या सम्बंध।

मेरे भीतर का अबोध बालक ’हनुमान चालीसा’ पढ़ने लगता है। अचानक सभी छायाएँ समग्र शक्ति से मुझे जोर का तमाचा मारती हैं। मुझे दर्द का एहसास होता है। मैं बिस्तर से उठकर कुछ लिखने लगता हूँ। ४ बजने पर माँ की डाँट के डर से सो नहीं पाता। घूमने निकल जाता हूँ। 

उस घटना को कई वर्ष बीत चुके हैं। पर हठात आज जब इस परदेश में फ़ुर्सत के पलों को ढ़ूँढ़ता हूँ, तो सर्वत्र उजाला लगता है - कहीं कोई छाया नहीं। मैं छाया चाहता हूं - जो मेरे भीतर के बालक को जगा सके, मुझे माँ के पास ले जा सके, घोर व्यस्तता के बावजूद - माँ से अकर्मण्यता की दुहाई पाने। योग की सलाह। वो लम्बा-चौड़ा भाषण। पर चाहकर भी ऐसा नहीं होता। इस व्यस्तता के बीच कब नींद आती है, कब सुबह होती है, पता ही नहीं चलता।

-- विद्यापति मिश्र 
(सर्जना के २५वें अंक से) 

चुटकी भर मैं

on शनिवार, 6 जून 2009

बहुत आसान है

एक दिन चुपचाप उठकर
 
तुम मेरे होने से बहुत दूर चली जाओ,

सम्भव है

मेरे प्यार को दुलराओ,

यह भी सम्भव है

कि चौखट से तुम्हारे पाँव टकरा जाएँ

और गिर पडे स्मृतियों की गठरी,

चौखट के सिरहाने छिटकी-बिखरी स्मृतियाँ

बटोरो न बटोरो,

चलती जाएँगी वे तुम्हारे तलुवों से सटी लिपटी
 
तुम्हारी यात्रा में साथ होंगी स्मृतियाँ,

तुम्हारी थकावट बाँटती हुई

जहाँ भी करोगी विश्राम बैठकर

वहीं आसं-पास
 
तुम्हारे सपनों के पडाव में मैं भी मिलूँगा,

यह कैसे हो

तुम रहो
 
मैं नहीं ;

तुम्हारा कहीं भी होना
 
मेरे साथ होना है,

मेरा कहीं भी होना
 
तुम्हारे साथ होना है,

तुम कहीं भी जाओ

कितना भी बचकर जाओ

’चुटकी भर मैं’
 
चला ही आऊँगा

तुम्हारे साथ। 

  - ज्योति प्रकाश 

(सर्जना २३वें अंक से)

एक झूठ

on शुक्रवार, 5 जून 2009


अंधेरे में बैठा अंधा रास्ते का पूर्वानुमान कर रहा है। अपनी छोटी से बुद्धि में बडी़-बडी़ चीजें बैठा रहा है। मन के जरिए रचना को समझने की नाकामयाब कोशिश।

कहाँ से आए, कहाँ को जाना। कुछ नहीं पता। बढे़ चलो, बढ़े चलो। भीड़ जिधर-जिधर चले, चले चलो। ठहरो। खाँ-खाँ , हफ़-हफ़, सामने ये कौन खडी़ है- कुरूप, अवांछित, लाल-लाल आँखें, भयानक चेहरा - मृत्यु, एक सत्य। 

नहीं-नहीं, जाने दो। देखो भीड़ आगे जा रही है, नारा लगा रही है - बढे़ चलो। उस भीड़ में वो लड़का कैसे दौड रहा है, सबको पीछे छोड रहा है। वो लेटा है, वो उठ बैठा है, वो गिरता है, वो उठ कर फिर चलता है। मुझको भी जाने दो। जीवन से कुछ पाने दो। 

अभी पत्नी है मेरी, सुन्दर-जवान कि जिसकी आँखों में मैंने जीवन देखा था। डूबा था। बच्चे हैं मेरे - मैं गया तो इनका क्या होगा। सब कुछ थम जाएगा। जीवन गति रूक जाएगी कितनों की। देखो, तुम करीब न आओ। चाहो तो सब कुछ ले लो - रूपया, पैसा, सोना, चाँदी। नहीं नहीं..........आह। तत्व, तत्व में मिल गया। ठहराव खत्म हुआ। मुसाफ़िर अपने कर्मों की गठरी ले आगे चल पडा। किराए का मकान था, एक रोज़ खाली करना पडा।

क्रन्दन, जीवन के रंगमंच पर एक नया दृश्य। एक कलाकार गया - नाटक जारी है। यक्ष को उसके प्रश्नों का उत्तर मिल गया कि आश्चर्य क्या है। मृत्यु तो उनके लिए थी, हमारे लिए तो दौड है - बढे़ चलो, बढे़ चलो। जीवनगति क्रमवार है। खाने में स्वाद और आया है, और आँखों में नींद। पत्नी खुश, बच्चे खुश। जीवन खुश। ऊँ शांति, ऊँ शांति, ऊँ शांति। साल में एक दिन अख़बार में उनकी तसवीर छपती है और नीचे लिखा होता है एक झूठ कि - "जीवन ठहर-सा गया है, तुम्हारे जाने के बाद।

-- सत्यप्रकाश 

(सर्जना २५वें अंक से) 

कुहू

on बुधवार, 6 मई 2009

उस नुक्कड़ पर मुड़ते ही
कदम जैसे ठहर से गए ...
क्यों? कोई खास !

वो कौन थी ?
बस -
नन्ही से बच्ची !!
दो छोटी-सी चोटियाँ
मुंह में एक आइसक्रीम,
किनारों से टपकती मलाई,
जिंदगी जैसे, सिमट सी गई हो
उस एक आइसक्रीम में |
और यादों के झरोखों में से
एक कली खिलखिला उठी |
तुतलाती आवाज़ में पूछा था उसने
नन्ही-सी ऊँगली हवा में उठा के,
'पु भाई' देख.....'जआज';
'माँ बोली -
इसमे मेला दुल्ला आएगा,
आया भाई ?'
पल भर चुप रहकर फ़िर बोल पड़ी,
'न आया'
मैं दिलासा देता.....
तेरा दुल्हा आएगा !!


आज, सत्रह साल बाद,
एक जहाज फ़िर उड़ा है
मैं देखता हूँ, गगन में,
शायद, मेरी 'कुहू' जा रही है;
अपने दुल्हे के साथ......
सात समुन्दर पार !!

- पंकज कुमार गुप्ता
('सर्जना' २७ वें अंक से साभार)