मेरा मैं

on शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009


मेरा मैं
है कहीं भीतर
खूब भीतर’
और परतें चढी जा रही हैं
चढ़ती जा रही हैं
परतें...
परतें...
परतें...
दो बूँद खामोशी
सहेज रखी है मैंने
किसी बेशकीमती विरासत की तरह
जब आँखों को मूँदकर
छूता हूँ अपनी खामोशियों को
तो लगता है
कुछ मिल गया है खोया-सा
और परतों के भीतर
खूब भीतर
कुछ कहता है कुछ सुनता है
कहीं ज़िन्दा है
कहीं ज़िन्दा है
मेरा "मैं"।

-- राहुल कुमार
(सर्जना २८वें अंक से)

3 comments:

अदीप ने कहा…

वाह सर , एक से बढ़कर एक सुन्दर कविता आप यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं...ये कविता पढ़ते हुए लगता है जैसे राहुल खुद ये कविता सुना रहा है...जब उसने 'सृजन स्वर्ण रथ ' कविता सुनी थी तो मैंने उसे रिकॉर्ड कर लिए था....उसकी अपनी आवाज़ में ये और ज्यादा अच्छी लगती है..

नताशा ने कहा…

बहुत आशावादी कविता ....बधाई

बेनामी ने कहा…

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