नियति

on रविवार, 20 फ़रवरी 2011

उठा-उठा लाता हूँ
लकड़ी का टुकड़ा
फेंक दिया था तुम ने जिसे
घर के पिछवाड़े

खींचता हूँ उस पर लकीरें
कुछ आड़ी, कुछ तिरछी
उसी कलम से
जिस की नीब से
कभी कम कभी ज्यादा
रोशनाई निकल जाया करती थी
और नाक-भौं सिकोड़ा करते थे तुम;
वे ही लकीरें
अक्स दर्शातीं रहीं तुम्हारे

एक अनदेखा अनजिया क्षण
गुजर गया करीब से तुम्हारे
जब सपने रीतते रहे
उस क्षण में भर दी मैं ने
तुम्हारी खामोशी
खुशी को तलाशती तुम्हारी व्याकुलता
कोई कारण नहीं
उस क्षण की चादर तान
कई ठिठुरती रातें उष्मा-आभा पाती रहीं।

-- सत्यन कुमार
सर्जना-२००२
ऊर्ध्व (विसंवाद पंचम की स्मारिका से)

कुछ ऐसा हुआ होगा

on गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

जब उसने जाना कि
झाड़ियों  के पीछे
अपनी-अपनी हड्डी चबाते
गोल-गोल घूम
अपनी पूँछ का पीछा करना ही ज़िन्दगी है
मेरी, तुम्हारी नजर में तब............
एक दुःख उसे साल गया |

दुःख  कुछ ऐसा
जिसका  साझा बनाना आसान नहीं होता
क्योंकि एक सिरफिरे को समझने के लिए समझ का न होना जरुरी है |
कुछ ऐसा दुःख
जो जीने को लेकर है
जो जीने से उपजे तजर्बों से है
जो हर उस चीज़ से है
जो उसे उस के सपनों  से अलग रहने  की नसीहत की याद दिलाते हैं |

सपने . . .
जिसे उस  ढंग  से अब शायद ही कोई देखता है
सपने जो मासूम शिशु -से कोमल होते हैं
और ऐसे में
सपनों को सहेजना उतना ही मुश्किल है
जैसे नवजात शिशु को  |

- विद्यापति मिश्र

(राहुल के लिए )

......पुनरपि ( विसंवाद - चतुर्थ कि स्मारिका ) में प्रकाशित .........