उठा-उठा लाता हूँ
लकड़ी का टुकड़ा
फेंक दिया था तुम ने जिसे
घर के पिछवाड़े
खींचता हूँ उस पर लकीरें
कुछ आड़ी, कुछ तिरछी
उसी कलम से
जिस की नीब से
कभी कम कभी ज्यादा
रोशनाई निकल जाया करती थी
और नाक-भौं सिकोड़ा करते थे तुम;
वे ही लकीरें
अक्स दर्शातीं रहीं तुम्हारे
एक अनदेखा अनजिया क्षण
गुजर गया करीब से तुम्हारे
जब सपने रीतते रहे
उस क्षण में भर दी मैं ने
तुम्हारी खामोशी
खुशी को तलाशती तुम्हारी व्याकुलता
कोई कारण नहीं
उस क्षण की चादर तान
कई ठिठुरती रातें उष्मा-आभा पाती रहीं।
-- सत्यन कुमार
सर्जना-२००२
ऊर्ध्व (विसंवाद पंचम की स्मारिका से)
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