यथार्थ

on बुधवार, 10 जून 2009


जीवन परिवर्तनशील है क्योंकि उसमें प्रवाह है समय का, विचारों का। समय का प्रवाह तो निश्चित व लयबद्ध गति से होता है, पर विचार मनुष्य की आकांक्षाओं और जरूरतों से परिभाषित होते रहते हैं। कितनों की ज़िन्दगी उन बून्दों जैसी हैं, जो धारा के साथ बहते हुए अपनी मन्ज़िल पा लेते हैं - उद्देश्यहीन व लक्ष्य-विहिन नहीं रह जाते। जीवन में प्रवाह तो रहता है पर ’दिशाहीन’। एक तरू से हरे-भरे वृक्ष बनने तक और फिर अस्तित्वहीन हो जाने तक परिस्थिति व आवश्यकतानुसार मनुष्य के विचार बदलते रहते हैं और अन्तत: पूरा जीवन बिना लक्ष्य के गतिमान दिखता है और इस गति के लिए किया गया हर कार्य स्वार्थनिहित।

............और कुछ ऐसी थी भैया की मोहित से अपेक्षाएँ। और होती भी क्यों न! बेटा था ही इतना कुशाग्र और आज्ञाकारी - जैसे एक सहनशील व त्यागी बाप की तपस्या का फल हो। मन्नतों बाद एक बेटी के आठ साल बाद हुआ था वह। भैया-भाभी ठहरे भोले के पुजारी, सो उसे भगवान शंकर का प्रसाद ही मानते थे। खासकर भाभी तो बस...............उनके असीमित मोह के चलते ही उसका नाम पड़ा था - मोहित। जहाँ भाभी का प्यार अंधा था, वहीं भैया का प्यार अनुशासित। बालपन से ही सब उसकी तीव्र बुद्धि और स्मृति से दंग रह जाते थे। प्रथम वर्ग से लेकर स्नातक तक वह हमेशा पढ़ाई-लिखाई में अव्वल रहा। परिणाम जगजाहिर था - सुयोग्य बेटा छात्रवृत्ति पाकर उच्च-शिक्षा हेतु अमेरिका चला गया। आज अमेरिका गए उसे पाँच साल हो गए हैं। तीन सालों से वहीं पर नौकरी कर रहा है। ऐसा नहीं था कि हम सबकी इच्छा नहीं थी कि मोहित भारत में ही नौकरी करे। भईया ने तो देशभक्ति का पाठ भी पढ़ाया था, पर समय के झंझावात में कश्ती की अपनी दिशा कहाँ होती है? वह तो उधर ही बह निकलती है जहाँ उसकी आवश्यकताएँ पूरी होती दिखती हैं। अभी घर की आवश्यकता पैसा थी तो मोहित ने अमेरिका में ही रहना उचित समझा। शायद पैसों की चमक मजबूत होती है ’रिश्तों के दर्द’ से, इसलिए भैया ने भी हामी भर दी थी। जाने के कुछ दिन बाद तक तो पत्रों का सिलसिला चलता रहा, पर जब से घर में फोन लग गया, अकसर हर सप्ताह बातें हो जाया करती हैं।

कल रात ही उसका फोन आया था। कह रहा था - "फ़ुर्सत बहुत कम मिलती है काम से, पर किसी तरह इस बार होली मे जरूर आऊँगा"। भईया को तो जैसे बिफ़रने का मानो मौका ही मिल गया। बेटे से तो कुछ न बोले, पर मुझे कहने लगे - " आने दो अबकी बार, शादी ही कर दूँगा उसकी। एक बार शादी हो जाए तो देखता हूँ कैसे वापस जाता है यहाँ से? नहीं चाहिए इस परिवार को पैसे की चमक। तुम भी समझाया करो उसको, अनुराग। उसकी माँ यहाँ हमेशा बीमार रहती है, क्या उसका मन नहीं करता कि बेटा नजरों के सामने रहे?" और भी न जाने क्या-क्या कहते रहे भईया...........। कितनी अपेक्षाएँ हैं भईया की मोहित से, आज मैं यही सोचता रहा। भईया-भाभी का बुढ़ापा अब अपनी लाठी को अपने पास ही रखना चाहता है। मुझे लगा कि मोहित को अब यहाँ आना ही पड़ेगा क्योंकि उसकी जरूरत यहाँ बढ़ती जा रही है।

मैं अनायास ही उसके बचपन की स्मृतियों में खो गया। बात उस समय की है, जब मोहित दूसरी कक्षा में पढ़ता था। एक दिन वह मेरे पास आया - आँखों मे आशा, चेहरे पे मुस्कान व शरारत एवं तनी भौंहों के साथ।

"चाचाजी, मुझे पतंग ला दीजिए न।"

"क्यों?" मामला गंभीर समझ मैंने जिज्ञासा से पूछा।

"मैं उसे तारों के पास उड़ा ले जाऊँगा और तारे फँसाकर वापस खींच लूँगा। माँ ने बताया है कि उसे तारे बहुत अच्छे लगते हैं।"

मैंने छेड़ते हुए पूछा था -"मुझे भी एक तारा ला दोगे बेटा?"

और जब उसे यकीन हो गया कि मैं पतंग जरूर ला दूँगा, तो उसने तुरन्त जवाब दिया -" आप शादी कर लीजिए, आपका बेटा आपके लिए तारा ला देगा। मैं तो अपनी माँ का बेटा हूँ।" अरमान और महत्वाकांक्षा की उड़ान उसके चेहरे से साफ़ झलक रही थी।

जब उसे अमेरिका में नौकरी मिली थी तो कितना उत्साहित था वह। उसकी महत्वाकांक्षा की मन्ज़िल को सीढ़ियाँ मिल गई थीं शायद। मुझसे कहा था - "देखना चाचा, मैं माँ का इलाज़ वहीं करवाऊँगा और ठीक हो जाने के बाद अमेरिका की सैर करवाऊँगा।" सचमुच उसे माँ की बड़ी चिन्ता रहती थी। कितनी ही देर मीठी यादों में खोया रहा।

ऐसे ही अपनी-अपनी परेशनियों के बीच उम्र सफ़र करती जा रही थी। होली का समय नजदीक आता जा रहा था और उत्सुकताएँ बढ़ती जा रही थीं।
कल शनिवार की सुबह भाभी की तबियत कुछ ज़्यादा ही बिगड़ गई थी। भईया और मैं जल्दी से उन्हें हॉस्पिटल ले गए थे। हमें कुछ ज़्यादा ही घबराहट हो रही थी। पता तो तीन साल पहले ही चल गया था, पर अर्थाभाव के चलते इलाज़ संभव न था। बस सब कुछ ईश्वर के भरोसे ही चल रहा था। आख़िर वही हुआ जिसका हम सबको डर था। डॉक्टर ने स्पष्ट कह दिया - "मुश्किल से कुछ ही दिन चलेगा यह सब।" भईया तो होनी की आशंका मात्र से ही टूट गए थे।

आज जब मोहित का फोन आया तो भईया ठीक से बात भी न कर सके। मैंने तो यह सोच लिया था कि उसे अब आना ही होगा। मैंने विस्तारपूर्वक परिस्थितियों से अवगत करा दिया। पर मजबूरियाँ भी तो साथ-साथ चल रहीं थीं।

"मुझे बहुत अफ़सोस हो रहा है चाचाजी, मैं पहले क्यों नहीं आया? अभी छुट्टी मिलना नामुमकिन-सा है। और अनिश्चितकाल के लिए छुट्टी लेने में नौकरी खोने का खतरा है। यहाँ जिम्मेवारियाँ बहुत बढ़ गई हैं।" उसने दर्द और दुविधा के साथ कहा - "आप समझ रहें हैं न चाचाजी, मैं बहुत मुश्किल में फंस गया हूँ,........तीन साल से तो माँ बीमार ही हैं और पता नहीं वह कब तक...........ओह! ऐसा करते हैं, मैं रोज़ आपको फोन करूँगा। और एकदम वक्त पर पहुँच जाऊँगा। ठीक है न चाचाजी।"

मैं चुपचाप उसकी बातें सुनता रहा। किंकर्तव्यविमूढ़-सा मैं हालात का मन्थन करता रहा....भाभी का कष्ट हम लोगों से देखा तक नहीं जा रहा था। आठ सुईयाँ लेनी पड़ती थी उन्हें दर्द-निवारण के लिए हर दिन। सुईयों के नशे से हमेशा बेसुध-बेहोश रहा करती थीं। वह जब भी होश में आती तो पूछती - मोहित आ गया क्या? ’मोहित की रट ही उन्हें शायद रोक रही थी। पर ये सिलसिला भी आखिर कब तक चलता। कल रात वह सारे बन्धनों से मुक्त हो गई पर छोड़ गई एक कसक जिस पर मोहित के हस्ताक्षर थे। पर माँ के बड़े प्यार ने ’पैगाम’ पहुँचा दियाथा पुत्र तक। देर रात में ही उसने फोन किया और आज शाम की फ़्लाईट पकड़ कर एकदम सही वक्त पर आ पहुँचा। यूँ तो खुद भी परेशान था, पर आते ही उसने अपनी दीदी और पिता को सँभाल लिया। फिर शुरु हुई एक मशिनी प्रक्रिया, अन्तिम संस्कार की। उसने मेरे साथ मिलकर सब कुछ सँभाल लिया था। मैं परम्पराओं को जड़-विमूढ़ सा निभाता चला जा रहा था, मानो सारे सोच और समझ खत्म हो गये हों। एक ओर सब मोहित के कुशलता की तारीफ़ कर रहे थे, दूसरी तरफ़ जीवन की कुछ यथार्थता ज्ञान के परे हो मुझे अवसन्न कर रही थी। गलती तो किसी ने न की थी, पर भाभी का स्वार्थ(?) पूरा न हो सका जिसकी अभिलाषा थी उन्हें अपने पुत्र से। कभी लगता - दूर से शरारती मोहित उसी चमक के साथ कह रहा हो..........मुझे पतंग ला दीजिए.................देखना चाचा , मैं माँ का........। शायद यथार्थ का मनोविज्ञान मेरे कमजोर अंतस पर चिह्न छोड़ गया था। 

-- कुमुद कुमार

(सर्जना २५वें अंक से)

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