यह आँसू

on शुक्रवार, 12 जून 2009


"वर्त्तमान है क्योंकि
इतिहास के पिछले पन्ने पर,
आसूँ की एक बूंद थी।
कल भविष्य होगा, क्योंकि
वर्त्तमान इतिहास दोहराएगा।"

एक क्रन्दन और मानव जीवन की शुरुआत। रोने की वह प्रथम आवाज़, जीवंतता का प्रतीक, सम्पूर्णता का द्योतक, हर चेहरे की हँसी थी। मिनट, घन्टे, दिन, महीने और साल से गुजरते हुए यही क्रन्दन अपने अपरिमित रूप-परिवर्तनों से अपने उम्र की गिनती करने लगा।

बचपन के आँसू बहुत सरल थे, वाणीमिश्रित, आवेगयुक्त परन्तु क्षणिक। प्रिय वस्तु की चाह, परन्तु उसकी दुर्लभता आवाज़ में ज़िद प्रतिबिम्बित करता और शनै:-शनै: अविरल अश्रुधाराओं से युक्त वाणी अपने विपक्षी को कमजोर कर अपनी चाहत पूरी कर लेती थी। अपने इष्ट खिलौने का टूट जाना भी आँखों में जलधाराएँ संचित कर जाता। शैश्विक क्रन्दन अमूल्य है, जिसके बिना मानव-जीवन गतिशीलता को कदापि प्राप्त नहीं कर सकता था।

बचपन की दहलीज़ पार करते ही मुख की वाणी नहीं अपितु आँखों के आँसू ही पीड़ा वर्णित करने के लिए पर्याप्त होते हैं। शैशवकालीन आँसुओं के बाद आँसू की जो पहली बूंद गिरी होगी, उसका आधार कदापि तुच्छ नहीं रहा होगा। वह काल जब मानवीय महत्वाकांक्षा (मनुष्य की वह वृत्ति जिसने मानव को आर्थिक दृष्टि से श्रेणियों में विभाजित कर दिया) अपनी पराकाष्ठा पर होती है। जिससे उद्वेलित हो मनुष्य राह की तमाम कँटीली झाड़ियों को निर्मूल करता हुआ अपने सफ़र में गतिमान रहना चाहता है, परन्तु भाग्य और समय की चोट से जड़वत्‌ हो जाने को बाध्य हो जाता है, तब चोटिल हृदय के चीत्कार में आँसू का नवीन रूप कुछ ऐसे सामने आता है -

"हर वो राह, जो जाती थी मन्ज़िल को,
हो बेख़बर, हम भी उधर ही चल पड़े।
कदम न रूके, न थके, पलकें पलभर को भी न गिरीं।
घटती दूरियों का निशां, फिर भी जब हमें न मिला,
ऐसा लगा मानों, सपने सारे आँसू बन छलक पड़े।"

एक ही समय, एक ही वस्तु दो रूपों में विद्यमान हो कदाचित संभव नहीं, परन्तु मानव-मन की यह दशा आँसू को दो रूपों में देखती है। एक ओर तो दर्द में डूबे दिल की व्यथा कहता हुआ और दूसरी तरफ़ जब आँसुओं के प्रवेग को हथेलियाँ ख़ुद में समाहित करना चाहती हैं, अपनी मौत से पूर्व आँसू सन्देश देता है - " सपने का टूट जाना जन्म का अंत नहीं, एक नया सोच , एक नई शुरुआत, एक नई दिशा और तुम्हारी मन्ज़िल तुम्हारा इन्तज़ार कर रही है।" तत्क्षण नवचेतना, अद्भुत शक्ति, गज़ब का आत्मविश्वास मन महसूस करने लगता है। पिछली हार की सारी शिकन आँसू की बूंदों से ठीक उसी तरह गायब हो जाती है, जैसे ठंडक की प्यासी धरती ओस की प्रथम बूंद से ही शीतलता क अनुभव करने लगती है।

एक वृद्ध अपने चेहरे को हथेलियों से समेटे, दूर जाते कारवाँ को पथराई आँखों से देखता रहता है। यह सोचते हुए कि वह कारवाँ कभी अपना था, हम भी साथ चल रहे थे। तभी आँसुओं का प्रबल वेग उसकी पीड़ा को दिशा दे देता है, यह कहकर कि कालचक्र की परिक्रमा सबको यह दिन दिखलाएगी।

जिसे यह ज्ञात हो कि उसका अवतरण ही उसकी मृत्यु का संकेत है, क्या वह अपने मूल को दृष्टिगोचर होने देगा?

"मृत्यु-मृत्यु, क्यों हर मानव चिल्लाता है?
जीवन की रसता पीकर भी, क्यों मौत से डर जाता है?
चित्त-शून्य से तेरे, ये अश्क जो बाहर आते हैं,
हृदय शांत, मन पावन कर, ख़ुद चिरकाल को सो जाते हैं।"

-- कुमारी ईशोत्तमा

(सर्जना के २३वें अंक से)

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