तब क्यों नहीं कहा था

on गुरुवार, 11 जून 2009


तब क्यों नहीं कहा था -
जब दिन ढलान पर था,
मुख म्लान-सा था
प्रेम-क्षुधा से विह्वल मैं;
भटक रहा था
ठोकर खाकर गिरता,
गिरकर उठता ,
फ़िर यूं हुआ कि,
अशक्त पडा था,राह में
जो जाती थी दहलीज से होकर तुम्हारी
तब तुमने ही तो उठाया था मुझे

तब क्यों नहीं कहा था-
जब सूरज नहला रहा था ,
रश्मियों की स्वाति
दिवसपात्र में भरकर
तुम्हारी सुचिक्कन काया को,
और मैं, स्पर्शातुर तुम्हारे
स्नेह्सिक्त हाथों का ,
तब उन्हीं हाथों से
लिख दिया था एक स्वप्न;
अंकित हो गया था जो ह्रत-पत्र पर

आज कह्ती हो तुम -
पाने का यत्न ही कब किया था,
जो खोने का गम मुझे हो
अच्छा होता कि तुम मुझे खोती-
तभी तो जान पाता एहसास तुम्हारा
और तुम्हारे पाने की हद को
आज कि जब तुम ,
‘तुम’ नहीं हो
तब मैं ही क्यों मैं रहूं

कच्ची स्याही से लिखा स्वप्न धुल गया है
लेकिन रंग छोड़ गया है
याद दिलाने को,
कि एक स्वप्न लिखा था
कभी मेरे वास्ते भी किसी ने

-- विवेक रंजन झा
(सर्जना २७वें अंक से)

0 comments:

एक टिप्पणी भेजें