छाया

on रविवार, 7 जून 2009

एक छाया तेजी से मेरा पीछा कर रही है, और मैं उतनी ही तेजी से भाग रहा हूँ। अचानक मैं गिर पड़ता हूँ। छाया तेजी से पीछा करती, मेरे पास पहुँच गई है। और फिर .......मैं जाग जाता हूँ, मेरे रोएँ खडे़ हैं। मुझे जोर की प्यास लगी है। मैं बहुत डरा-सा लगता हूँ।

मैं मौत से नहीं डरता या फिर डरता हूँ। पर क्या है जो मुझे बाईस सालों के बाद भी उस छाया से डर लगता है। मैं मजबूत और निडर बनना चाहता हूँ। अगले दिन मैं फिर अपने कमरे में अलग सोता हूँ, और फिर उसी घटना की पुनरावृत्ति। मैं रह नहीं पाता। मैं काँप उठता हूँ। मैं माँ के पास जाता हूँ और वहीं खाट पर सो जाता हूँ।

अगली सुबह माँ की डाँट। कोई अबोध बालक होता तो माँ से लिपट कर कहता - " माँ, मुझे अँधेले में भूत से डल लगता है।" पर जब आज दिमाग की खिड़कियाँ खुलती जा रही है, जब स्वयं कहानियों के पात्र गढ़ने लगा हूँ तो अपना ही पात्र क्यों इतना कमजोर लगता है। क्यों मैं अपने शयनस्थल पर टिक नहीं पाता? आखिर किस छाया से क्या डर?

इस बार दृढ़ निश्चय कर उससे लड़ता हूँ, जो नहीं है। लड़ता हूँ वहाँ रहने को, पर टिक नहीं पाता। मुझे मौत से डर नहीं लगता - मैं चिल्लाता हूँ।

मैं फिर अगले दिन शयनकक्ष में अकेला सोता हूँ। कई ओर से असंख्य छायाएँ मेरी ओर आ रही हैं। मैं यथाशक्ति खाट पर पड़ा रहता हूँ। मैं आस्तिक हूँ - पर आस्तिकता का छाया से क्या सम्बंध।

मेरे भीतर का अबोध बालक ’हनुमान चालीसा’ पढ़ने लगता है। अचानक सभी छायाएँ समग्र शक्ति से मुझे जोर का तमाचा मारती हैं। मुझे दर्द का एहसास होता है। मैं बिस्तर से उठकर कुछ लिखने लगता हूँ। ४ बजने पर माँ की डाँट के डर से सो नहीं पाता। घूमने निकल जाता हूँ। 

उस घटना को कई वर्ष बीत चुके हैं। पर हठात आज जब इस परदेश में फ़ुर्सत के पलों को ढ़ूँढ़ता हूँ, तो सर्वत्र उजाला लगता है - कहीं कोई छाया नहीं। मैं छाया चाहता हूं - जो मेरे भीतर के बालक को जगा सके, मुझे माँ के पास ले जा सके, घोर व्यस्तता के बावजूद - माँ से अकर्मण्यता की दुहाई पाने। योग की सलाह। वो लम्बा-चौड़ा भाषण। पर चाहकर भी ऐसा नहीं होता। इस व्यस्तता के बीच कब नींद आती है, कब सुबह होती है, पता ही नहीं चलता।

-- विद्यापति मिश्र 
(सर्जना के २५वें अंक से) 

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