बहुत आसान है
एक दिन चुपचाप उठकर
तुम मेरे होने से बहुत दूर चली जाओ,
सम्भव है
मेरे प्यार को दुलराओ,
यह भी सम्भव है
कि चौखट से तुम्हारे पाँव टकरा जाएँ
और गिर पडे स्मृतियों की गठरी,
चौखट के सिरहाने छिटकी-बिखरी स्मृतियाँ
बटोरो न बटोरो,
चलती जाएँगी वे तुम्हारे तलुवों से सटी लिपटी
तुम्हारी यात्रा में साथ होंगी स्मृतियाँ,
तुम्हारी थकावट बाँटती हुई
जहाँ भी करोगी विश्राम बैठकर
वहीं आसं-पास
तुम्हारे सपनों के पडाव में मैं भी मिलूँगा,
यह कैसे हो
तुम रहो
मैं नहीं ;
तुम्हारा कहीं भी होना
मेरे साथ होना है,
मेरा कहीं भी होना
तुम्हारे साथ होना है,
तुम कहीं भी जाओ
कितना भी बचकर जाओ
’चुटकी भर मैं’
चला ही आऊँगा
तुम्हारे साथ।
- ज्योति प्रकाश
(सर्जना २३वें अंक से)
2 comments:
बहुत सुन्दर रचना प्रेषित की है।बधाई।
सुंदर रचना है। पर ज्योतिप्रकाश जी से दो सवाल हैं। पहली बात चौखट का सिरहाना कहां होगा। नीचे या ऊपर। दूसरी बात तलवों में तो कोई चीज कुचल ही जाएगी सटी या लिपटी कैसे रह सकती है।कविता में थोड़ी कसावट और होती तो सोने में सुहागा होता।
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