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जो क्षय नहीं होते
मानव की भांति नहीं रोते
अंकित हो जाते हैं हृदय पर
पुकारते हैं अपनी आवाज़ से
हाँ, अक्षर भी बोलते हैं
तुमने सुनी नहीं अब तक
शायद तुम पढ़ते-लिखते
रहे हो अक्षरों को,
जानते नहीं सच
बोलने वाले अक्षर
नए नहीं हैं
सदियों से वे सुना रहे हैं
दास्तान अपनी
शब्दों से भी बड़े हैं,
ये अक्षर जो जोड़ते हैं
कभी-कभी ज़िन्दगी भी
साक्षर होने का मतलब ये
नहीं कि तुम सुन पाओगे
अक्षरों की ध्वनि से परिचित हो
गाथाओं को बुन पाओगे,
क्योंकि तुम तो क्षणिक हो
अविनाशी एवं निरन्तर जो हैं,
वे क्षणभंगुर नहीं होते,
अक्षर,
जो क्षय नहीं होते।
-- दीपक कुमार
(सर्जना २५वें अंक से)
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जब दिन ढलान पर था,
मुख म्लान-सा था
प्रेम-क्षुधा से विह्वल मैं;
भटक रहा था
ठोकर खाकर गिरता,
गिरकर उठता ,
फ़िर यूं हुआ कि,
अशक्त पडा था,राह में
जो जाती थी दहलीज से होकर तुम्हारी
तब तुमने ही तो उठाया था मुझे
तब क्यों नहीं कहा था-
जब सूरज नहला रहा था ,
रश्मियों की स्वाति
दिवसपात्र में भरकर
तुम्हारी सुचिक्कन काया को,
और मैं, स्पर्शातुर तुम्हारे
स्नेह्सिक्त हाथों का ,
तब उन्हीं हाथों से
लिख दिया था एक स्वप्न;
अंकित हो गया था जो ह्रत-पत्र पर
आज कह्ती हो तुम -
पाने का यत्न ही कब किया था,
जो खोने का गम मुझे हो
अच्छा होता कि तुम मुझे खोती-
तभी तो जान पाता एहसास तुम्हारा
और तुम्हारे पाने की हद को
आज कि जब तुम ,
‘तुम’ नहीं हो
तब मैं ही क्यों मैं रहूं
कच्ची स्याही से लिखा स्वप्न धुल गया है
लेकिन रंग छोड़ गया है
याद दिलाने को,
कि एक स्वप्न लिखा था
कभी मेरे वास्ते भी किसी ने
-- विवेक रंजन झा
(सर्जना २७वें अंक से)
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उस नुक्कड़ पर मुड़ते ही
कदम जैसे ठहर से गए ...
क्यों? कोई खास !
वो कौन थी ?
बस -
नन्ही से बच्ची !!
दो छोटी-सी चोटियाँ
मुंह में एक आइसक्रीम,
किनारों से टपकती मलाई,
जिंदगी जैसे, सिमट सी गई हो
उस एक आइसक्रीम में |
और यादों के झरोखों में से
एक कली खिलखिला उठी |
तुतलाती आवाज़ में पूछा था उसने
नन्ही-सी ऊँगली हवा में उठा के,
'पु भाई' देख.....'जआज';
'माँ बोली -
इसमे मेला दुल्ला आएगा,
आया भाई ?'
पल भर चुप रहकर फ़िर बोल पड़ी,
'न आया'
मैं दिलासा देता.....
तेरा दुल्हा आएगा !!
आज, सत्रह साल बाद,
एक जहाज फ़िर उड़ा है
मैं देखता हूँ, गगन में,
शायद, मेरी 'कुहू' जा रही है;
अपने दुल्हे के साथ......
सात समुन्दर पार !!
- पंकज कुमार गुप्ता
('सर्जना' २७ वें अंक से साभार)
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