बदलाव

on शुक्रवार, 19 जून 2009


इकबाल भाई का माथा ठनका। उनकी आँखें सड़क की ओर टिक गई। कार बन्द होने की तेज आवाज़ उन्हें भयंकर सर्वनाश के प्रति सचेत कर रही थी। कार और पीछे पुलिस की जीप। वही हुआ जिसका उन्हें डर था। कार का दरवाजा खुला और तेजी से तीन-चार लोग उनकी ओर बढ़े। ये वही लोग थे जो कुछ दिनों से उन पर यह दबाव बना रहे थे कि वह अपने बेकरी से उन दस बच्चों की छुट्टी कर दें जिनकी उम्र अभी काम करने की नहीं, पढ़ने-लिखने की है। इकबाल भाई ने उन्हें लाख समझाया कि यदि ये बच्चे काम न करें तो पढ़ने की बात तो दूर, वे पेट भर भोजन के लिए भी तरसेंगे। पर व्यर्थ, कौन समझेगा और क्यों समझे, क्योंकि इन्होनें तो समाजसेवा और मानवाधिकार का ठेका जो ले रखा था। और इनके रहते बाल श्रम, नहीं , कभी नहीं।

अब तक बेकरी के चारों ओर भीड़ लग चुकी थी। इस बीच कुछ जागरुक पत्रकार बंधु भी पहुँच चुके थे। पुलिस ने बेकरी में ताला मार दिया और बच्चों को बेकरी से मुक्त करवा दिया। हर जुबान पर इस घटना की प्रशंसा, जैसे समाज सचमुच चैतन्य हो गया हो। कल के अखबार की एक अच्छी ख़ब़र.......।

सारे शहर की तरह वहाँ के मन्दिर में भी इस बदलाव की चर्चा हो रही थी। पर कुछ तो न बदला था, हाँ बेकरी से काला धुआँ निकलना अब बन्द हो गया था और बाहर भिखारियों की कतार में दस बच्चे अधिक थे।

-- राजन प्रकाश 

(सर्जना २४वें अंक से)

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