कैसे करूँ प्रतिकार तुम्हारा
हे हृदयकोष में संचित पीड़ा?
आँखों में अविचल धैर्य लिए
वाणी में मृदु प्यार धरे
जिसने जीना मुझको सिखलाया
वह मेरी प्रिया तो तुम ही हो।
फिर कैसे छोडूँ साहचर्य तुम्हारा?
कैसे करूँ प्रतिकार तुम्हारा
हे हृदयकोष में संचित पीड़ा?
जब कभी भटका हूँ मैं,
वैभव-पथ पर ललचा हूँ मैं,
तप्त शीश पर कोमल कर
को फेर तुम्हीं ने बतलाया
वैभव नही पाथेय मेरा।
इस जीवन के कष्ट-शूल को
धारण करने वाली तुम ही हो।
फिर करूँ न कैसे वरण तुम्हारा?
कैसे करूँ प्रतिकार तुम्हारा
हे हृदयकोष में संचित पीड़ा?
तन के रिसते घावों को
अमृत से तुमने नहलाया
मन में बहती विष की सरिता
को सहज सोख तुमने डाला
व्यर्थ शब्दों का भाजन छोड़
मौन से जिसने मुझे मिलाया
वह मेरी प्रणायिनी तुम ही हो।
फिर कैसे छोड़ूँ साहचर्य तुम्हारा?
कैसे करूँ प्रतिकार तुम्हारा
हे हृदयकोष में संचित पीड़ा?
घृणा-रोष के दलदल से
मुझे ऊबारा, प्यार दिया
मन के छाये अँधेरे को
जल स्वयं जिसने है दूर किया
वह दीपशिखा तुम ही तो हो।
तब करूँ न कैसे नमन तुम्हारा?
कैसे करूँ प्रतिकार तुम्हारा
हे हृदयकोष में संचित पीड़ा?
कविता में कवि का कथ्य - पीडा़ जीवन को नयी अनुभूति देती है, जीवन को संवारने का भी काम करती है। पीडा़ ही प्रथम संगिनी, अन्तिम सहचरी भी है क्योंकि जीवन के सत्य रूप का ज्ञान यही कराती है, यह ही वह अनवरत रोशनी है जो अनन्त पथ-दर्शन कराती है।
आरूणी मूकेश (कुमार सौरभ)
(सर्जना के २४वें अंक से)
1 comments:
पीड़ा का कीड़ा
शब्दों और भावों से
कराता है अद्भुत क्रीड़ा
एक टिप्पणी भेजें