उस नुक्कड़ पर मुड़ते ही
कदम जैसे ठहर से गए ...
क्यों? कोई खास !
वो कौन थी ?
बस -
नन्ही से बच्ची !!
दो छोटी-सी चोटियाँ
मुंह में एक आइसक्रीम,
किनारों से टपकती मलाई,
जिंदगी जैसे, सिमट सी गई हो
उस एक आइसक्रीम में |
और यादों के झरोखों में से
एक कली खिलखिला उठी |
तुतलाती आवाज़ में पूछा था उसने
नन्ही-सी ऊँगली हवा में उठा के,
'पु भाई' देख.....'जआज';
'माँ बोली -
इसमे मेला दुल्ला आएगा,
आया भाई ?'
पल भर चुप रहकर फ़िर बोल पड़ी,
'न आया'
मैं दिलासा देता.....
तेरा दुल्हा आएगा !!
आज, सत्रह साल बाद,
एक जहाज फ़िर उड़ा है
मैं देखता हूँ, गगन में,
शायद, मेरी 'कुहू' जा रही है;
अपने दुल्हे के साथ......
सात समुन्दर पार !!
- पंकज कुमार गुप्ता
('सर्जना' २७ वें अंक से साभार)
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